सोचिए, आजादी के 75 साल बाद भी भारत में एक रेलवे ट्रैक ऐसा है, जिसके लिए हर साल करोड़ों रुपये ब्रिटेन की एक कंपनी को देने पड़ते हैं। जी हां, यह है महाराष्ट्र का शकुंतला रेलवे ट्रैक—एक 190 किलोमीटर लंबी रेल लाइन, जो अमरावती से मुर्तजापुर तक फैली है। यह ट्रैक न सिर्फ इतिहास का एक टुकड़ा है, बल्कि एक ऐसी कहानी भी है, जो हैरान करती है और सोचने पर मजबूर करती है।
प्यार, परंपरा या परियोजना? नाम का रहस्य
इस ट्रैक पर चलने वाली एकमात्र ट्रेन का नाम था शकुंतला पैसेंजर। कहते हैं कि यह नाम किसी ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी के नाम पर पड़ा, जो इस परियोजना से जुड़ा था। क्या यह एक प्रेम कहानी थी, या बस एक संयोग? कोई नहीं जानता, लेकिन यह नाम इस ट्रैक की पहचान बन गया। शुरू में स्टीम इंजन से चलने वाली इस ट्रेन में सिर्फ 5 डिब्बे थे, जो बाद में डीजल इंजन के साथ 7 हो गए। 17 स्टेशनों से गुजरते हुए यह 6-7 घंटे का सफर तय करती थी—एक ऐसा सफर, जो समय से ज्यादा यादों का था।
एक धीमा सफर, जो दिल को छूता था
शकुंतला पैसेंजर की रफ्तार कभी तेज नहीं रही। यह ट्रेन महाराष्ट्र के गांवों, खेतों और कपास के ढेरों के बीच से गुजरती थी। यात्री खिड़की से बाहर झांकते, हवा का झोंका महसूस करते और आपस में बातें करते। अचलपुर और यवतमाल जैसे स्टेशनों पर रुकते हुए यह ट्रेन इस इलाके की जान थी। लेकिन समय के साथ ट्रैक की हालत बिगड़ती गई। पिछले 60 सालों में कोई बड़ी मरम्मत नहीं हुई, और आखिरकार 2020 में यह ट्रेन हमेशा के लिए थम गई।
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करोड़ों की रॉयल्टी, फिर भी जर्जर हालत
1903 में ब्रिटेन की क्लिक निक्सन एंड कंपनी ने इस ट्रैक की नींव रखी थी, और 1916 में इसे पूरा किया। आजादी के बाद भी इसका मालिकाना हक Central Provinces Railway Company (CPRC) के पास रहा, जो ब्रिटेन में रजिस्टर्ड है। 1947 के एक समझौते के तहत भारत सरकार इसे चलाती है, लेकिन हर साल लगभग ₹1.20 करोड़ रॉयल्टी देती है। सवाल यह है कि इतना पैसा देने के बाद भी यह ट्रैक क्यों खस्ताहाल है? क्या यह औपनिवेशिक इतिहास की जटिलताओं का नतीजा है, या प्राथमिकताओं का खेल?
लोगों की पुकार: “हमें हमारी ट्रेन लौटा दो!”
स्थानीय लोग इस ट्रेन को वापस चाहते हैं। कपास से समृद्ध यवतमाल और अचलपुर जैसे इलाकों के लिए यह ट्रेन परिवहन का एकमात्र सस्ता साधन थी। एक स्थानीय किसान गोविंद कहते हैं, “यह ट्रेन हमारे लिए सिर्फ सवारी नहीं थी, यह हमारा बाजार थी, हमारा रास्ता थी।” लेकिन ट्रैक की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि इसकी अधिकतम रफ्तार 20 किलोमीटर प्रति घंटा तक सिमट गई थी।
अंग्रेजों की छाप आज भी बरकरार
अगर आप इस ट्रैक को देखें, तो पुराने सिग्नल, जर्जर स्टेशन और ब्रिटिश तकनीक की झलक आपको अतीत में ले जाएगी। यह ट्रैक आज भी उस दौर की कहानी कहता है, जब अंग्रेजों का भारत पर राज था। लेकिन अब यह सिर्फ एक विरासत बनकर रह गया है, जिसे बचाने की जरूरत है।
आगे क्या होगा?
शकुंतला रेलवे ट्रैक का भविष्य अधर में लटका है। क्या सरकार इसे खरीदकर इसका आधुनिकीकरण करेगी? या यह इतिहास के पन्नों में खो जाएगा? लोगों की उम्मीदें और सरकार का फैसला ही तय करेगा कि यह ट्रैक फिर से जिंदगी पाएगा या हमेशा के लिए खामोश रहेगा। लेकिन एक बात पक्की है—इसकी कहानी भारतीय रेलवे के इतिहास का एक अनोखा पन्ना है, जो हर किसी को सुनने लायक है।
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